आज हम देख रहे है कि बच्चे संस्कार विहीन होते जा रहे है। माता-पिता, शिक्षक, समाज सभी बच्चों को संस्कार विहीन देख कर उन्हे दोष देते है। किन्तु क्या हमने कभी विचार किया है कि वे संस्कार विहीन क्यों होते जा रहे है? इसका मुख्य कारण क्या है? नहीं, शायद हम सभी उसके मूल तक पहुँच ही नहीं पा रहे है।
मेरे मतानुसार इसका मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली है। वर्तमान में हम देख रहे है कि विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर ज्ञान तो अर्जित कर लेते है किन्तु संस्कार ग्रहण नहीं कर पाते। जिस प्रकार इस संसार में बच्चा जन्म तो लेता है किन्तु संस्कारित करने का कार्य माँ करती है। मातृविहीन बालक अपना जीवन (मोगली) (जो जंगल में रह कर पशुवत है) कि तरह व्यतीत करता है। उसी प्रकार आज शिक्षित व्यक्ति संस्कारों से वंचित हो अपना जीवन यापन कर रहा हैव।
आज हम देखती है कि विद्यार्थी के जीवन में शिक्षा में संस्कृत भाषा का कोई महत्व नहीं है। ना ही शिक्षा शास्त्री इसकि महत्ता को समझ पा रहे है ना ही माँ-बाप। वे चाहते है कि मेरा बच्चा इंजीनिर , डॉक्टर, कलेक्टर, उच्च पदाधिकारी बने और उसके लिए उसे अंग्रजी, गणित , सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि विषय का ज्ञान आवश्यक समझते है। संष्कृत का कोई महत्त्व नहीं है, इसीलिए उसे वैकल्पिक विषय में रखा है तथा माध्यमिक स्तर पर ही पढ़ाया जा रहा है, जबकि इस विषय कि अनिवार्यता प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक रहता है।
कहा भी गया है –
संस – करोति इति संस्कृत।
अर्थात बच्चे में संस्कार संस्कृत भाषा से ही आ सकता है, इन सभी विषयों तथा शास्त्रों कि जननी संस्कृत ही है जिसे भुला जा रहा है। वर्तमान समय में यदि हम संसकरवान विद्यार्थी एवं समाज चाहते है तो हम अपनी संस्कृति एवं संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित करना होगा।
मैथली शरण गुप्त ने भी लिखा है-“ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे यह पशु है कि आप-आप ही चरें”
अर्थात स्वार्थी जीवन को पशु प्रवृति तथा परोपकारी प्रवृति को मनुष्यवृत्ति कहा जाता है।